आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
श्रीगुरुजीके चरणकमलोंकी रजसे अपने मनरूपी दर्पणको साफ करके मैं
श्रीरघुनाथजीके उस निर्मल यशका वर्णन करता हूँ, जो चारों फलोंको (धर्म, अर्थ,
काम, मोक्षको) देनेवाला है।
जब तें रामु ब्याहि घर आए।
नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी।
सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥
नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी।
सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥
जबसे श्रीरामचन्द्रजी विवाह करके घर आये, तबसे [अयोध्या में]
नित्य नये मङ्गल हो रहे हैं और आनन्दके बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोकरूपी
बड़े भारी पर्वतोंपर पुण्यरूपी मेघ सुखरूपी जल बरसा रहे हैं॥१॥
रिधि सिधि संपति नदी सुहाई।
उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती।
सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती।
सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्तिरूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़कर
अयोध्यारूपी समुद्र में आ मिली। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के
समूह हैं, जो सब प्रकार से पवित्र, अमूल्य और सुन्दर हैं॥ २॥
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।
जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी।
रामचंद मुख चंदु निहारी॥
जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी।
रामचंद मुख चंदु निहारी॥
नगरका ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो
ब्रह्माजीकी कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगरनिवासी श्रीरामचन्द्रजीके
मुखचन्द्रको देखकर सब प्रकारसे सुखी हैं॥३॥
मुदित मातु सब सखी सहेली।
फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ।
प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥
फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ।
प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥
सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथरूपी बेलको फली हुई देखकर
आनन्दित हैं। श्रीरामचन्द्रजीके रूप, गुण, शील और स्वभावको देख-सुनकर राजा
दशरथजी बहुत ही आनन्दित होते हैं।।४।।
दो०- सब के उर अभिलाषु अस, कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद, रामहि देउ नरेसु॥१॥
आप अछत जुबराज पद, रामहि देउ नरेसु॥१॥
सबके हृदय में ऐसी अभिलाषा है और सब महादेवजी को मनाकर
(प्रार्थना करके) कहते हैं कि राजा अपने जीते-जी श्रीरामचन्द्रजी को युवराजपद
दे दें॥१॥
एक समय सब सहित समाजा।
राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू।
राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥
राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू।
राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥
एक समय रघुकुलके राजा दशरथजी अपने सारे समाजसहित राजसभामें
विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्योंकी मूर्ति हैं , उन्हें श्रीरामचन्द्रजीका
सुन्दर यश सुनकर अत्यन्त आनन्द हो रहा है॥ १॥
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें।
लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।
तिभुवन तीनि काल जग माहीं।
भूरिभाग दसरथ सम नाहीं॥
लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।
तिभुवन तीनि काल जग माहीं।
भूरिभाग दसरथ सम नाहीं॥
सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुखको रखते हुए
(अनुकूल होकर) प्रीति करते हैं। [पृथ्वी, आकाश, पाताल] तीनों भुवनों में और
[भूत, भविष्य, वर्तमान] तीनों कालों में दशरथजीके समान बड़भागी [और] कोई नहीं
है॥२॥
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- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
- अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
- अयोध्याकाण्ड - अयोध्या में मंगल उत्सव
- अयोध्याकाण्ड - महाराज दशरथ के मन में राम के राज्याभिषेक का विचार
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक की घोषणा
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक के कार्य का शुभारम्भ
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ का राम को निर्देश
- अयोध्याकाण्ड - देवताओं की सरस्वती से प्रार्थना
- अयोध्याकाण्ड - सरस्वती का क्षोभ
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का माध्यम बनना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा कैकेयी संवाद
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को झिड़कना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को वर
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को समझाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी के मन में संदेह उपजना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की आशंका बढ़ना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का विष बोना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मन पलटना
- अयोध्याकाण्ड - कौशल्या पर दोष
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- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का कैकेयी को आश्वासन
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का वचन दोहराना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का दोनों वर माँगना
अनुक्रम
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